हिजाब के सवाल पर-
हमारे घरों में भी घूँघट था। लेकिन सत्तर के दशक में परिवार के वरिष्ठ लोगों ने उसे ख़त्म कर दिया।
ये ख़ुद के विवेक से हुआ। लेकिन अगर किसी बाहर के व्यक्ति ने ज़बरदस्ती घूँघट हटवाने की कोशिश की होती, तो शायद हिंसा हो जाती।
यही मामला हिजाब का भी है।
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धार्मिक बातों में ज़बरदस्ती या सरकार द्वारा बदलाव के असफल प्रयास विश्व में किए जा चुके हैं।
सोवियत यूनियन ने धर्म को लगभग बैन कर दिया था। धार्मिक नाम भी ख़त्म कर दिये थे।
लेकिन 70 साल बाद जब सोवियत सत्ता ढही, धार्मिक संस्थाएँ और रीतियाँ रातों रात फिर ज़िंदा हो गई!
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90’s में मैंने ख़ुद पुराने सोवियत इलाक़ों की यात्रा में देखा कि धार्मिक रीति रिवाजों पर सरकार या दूसरे समुदायों के कंट्रोल का असर केवल सत्ता रहने तक ही रहा। लोगों के मन में परम्परायें ज़िंदा रहीं, सत्ता बदलते ही वापिस हो गई।
क्यूबा v वियतनाम जैसे देशों में भी मैंने यही पाया
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हमारे सामने पिछले सौ साल में ऐसे तमाम प्रयोगों का अनुभव है जो विश्व के अलग अलग हिस्सों में हुए।
ये अनुभव बताता है कि कोई भी परंपरा तभी बदलती है, जब उस समाज के लोग उसे बदलना चाहते हैं।
हिजाब के मामले में भी ये मुस्लिम समुदाय के ऊपर है। जो कुछ बदलना है, तो उन्हें बदलना है।
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हिजाब यूँ भी अब कुछ मुस्लिम वर्ग तक ही है।जो भी मुस्लिम लड़कियाँ हमारे साथ पढ़ी या काम की हैं, उन्हें हमने हिजाब में नहीं देखा है।
ये भी सच है कि हिजाब न पहनने से उन मुस्लिम लड़कियों का कोई विरोध मैंने उनके परिवारों या समाज में नहीं देखा है।उनका फ़ैसला समाज को स्वीकार्य दिखा
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लेकिन ये भी सच है कि जो घूँघट या हिजाब पहनना चाहे, उन्हें ऐसा करने देना चाहिए। ये उनकी निजी लड़ाई या निजी choice है।
एक बात और:
ये बहस नयी नहीं है। लेकिन सरकार चलाने वालों को तय करना होता है कि ज़रूरी क्या है।
आज़ादी के वक़्त भारत में 92% लोग अनपढ़ थे….
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आज़ादी के वक़्त भारत में 88% लोग अनपढ़ थे। उस वक़्त हर धर्म का, हर क्षेत्र का, हर जाति का पहनावा अलग था। बहुत से हिंदू भी पगड़ी पहनते थे, दक्षिण भारत में भी पगड़ी का चलन था। CV Raman या डॉ राधाकृष्णन की तस्वीरें देख लें।
महिलायें आम तौर पर घूँघट, हिजाब या चुनरी में रहती थी….7/n
ऐसे में भारत सरकार ने अगर शर्त रखी होती कि पहले सभी एक सी यूनिफार्म पहनें तभी वो स्कूल आ कर शिक्षा ग्रहण करेंगे, तो शायद ज़्यादातर आबादी स्कूल में पढ़ ही नहीं सकती थी।
इसीलिए ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गई। भारत को शिक्षित करना सर्वोपरि उद्देश्य रहा
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फिर जैसे जैसे समाज शिक्षित हुआ, पढ़े लिखे समाज अपने यहाँ परिवर्तन लाने लगे। ख़ास तौर पर महिला अधिकारों की जीत सीधे सीधे शिक्षा और रोज़गार से जुड़ी है।
इसलिए ये ज़रूरी है कि हम अपने और विश्व के इतिहास से सीखें। जवाब आसानी से मिल जाएँगे।
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