बात पुरानी है, एक बार मैं बाज़ार गया था। कुछ खरीददारी करनी थी। 25 रुपए की आवश्यक चीजें और बाबा के लिए अगरबत्ती का पैकेट लेकर वापस घर आ गया। बाबा कोई पूजा पाठ नहीं करते थे। लेकिन उनके रूटीन में था कि वह लेटने से पहले अपने कमरे में अगरबत्ती जरूर जलाते।
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उनका अपना मानना था कि ऐसा करने से हवा शुद्ध रहती है।
जो मैं आज तक नहीं समझ पाया। भला अच्छी खासी हवा में कार्बन डाइऑक्साइड घोलने से हवा कैसे शुद्ध रह सकती है। फिर जरूरत क्या है, प्राकृतिक रूप से मिलने वाली हवा के साथ छेड़छाड़ करने की। लेकिन बाबा थे, तर्क कौन करता!
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बाबा को अगरबत्ती देने के बाद जब मैंने अपनी जेब टटोली तब मुझे पता चला कि जो फुटकर 25 रुपए बचे थे वह कहीं गिर गए। उस समय 25 रुपए की वैल्यू थी। आप यूं समझ लीजिए कि तब आलू की कीमत यही कोई डेढ़ दो रुपए के आस पास रही होगी।
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मैं परेशान हो गया। चुपचाप वहीं खटिया पर बाबा के पैताने सर पर हाथ रखकर बैठ गया। बाबा ने पूंछा क्या हुआ तो मैंने पूरी बात बताई। बाबा बोले "इसमें परेशान होने वाली कोई बात नहीं। किसी को 25 रुपए की जरूरत होगी और इस तरीके से ईश्वर ने उसकी जरूरत पूरी कर दी।
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तुम्हे तो खुश होना चाहिए, कि अभी भी तुम्हारे पास 50 रुपए हैं। मुझे भी विनोद सूझा। मैंने कहा
" मान लो बाबा ये 50 गिरते और 25 बचते तब?"
बाबा बोले " इसका मतलब जो व्यक्ति 50 रुपए पाता, उसकी जरूरत तुमसे दोगुना है।"
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मैंने फिर प्रश्न किया " एक घटना और घट सकती थी, अगर सब गिर जाते तब। तब आप क्या कहते?"
"इसका अर्थ यह है, कि फिलहाल तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है। और जब तुम्हारी जरूरतें ही नहीं हैं तो भला ईश्वर क्यों देगा? बिना जरूरत के दी गई चीजों का मोल मनुष्य नहीं समझता।"
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उस दिन तीन बातें समझ आईं। पहली कि बिना किसी पूजा- अर्चना, अज़ान और प्रार्थना के बगैर भी हम ईश्वर के साथ सहज श्रद्धा रख सकते हैं।
दूसरी कि किसी भी प्रकार का नुक़सान आपकी खुशी से बड़ा नहीं हो सकता।
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तीसरी बात भी बड़ी व्यवहारिक है कि बिना जरूरत के पाई गई चीजों का मोल हम नहीं समझते।
बाबा आज भी हमारे साथ हैं, अपनी नैतिकता का पाठ पढ़ाती किस्से कहानियों के साथ।
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