युवराज ने धनुष उठाया, और तेल की कड़ाही के पास जाकर खड़ा हो गया। उसने कड़ाही हो देखा, कड़ाही में भरे तेल को देखा, सभा में भरे लोगों को देखा, दो तीन को तो मन ही मन गले भी लगाया। ऊपर लटकती मछली को देखा और उसे अपना चुनाव चिन्ह दिखाते हुए कहा डरो मत।
उसनें धनुष के ऊपर तीर को चढ़ाया, और निशाना लगाया।
उसने नहीं सोचा कि उसे तीर मारने के बाद क्या मिलेगा, उसने तेल में देखा, उसे छत दिखी, छत पर लगा झूमर दिखा, छत पर बनी कलाकृति दिखी, छत पर लटकती मछली और अपनी ही परछाई दिखाई दी, फिर उसने तीर तेल में दिख रही अपनी ही आंख पर चला दिया।
फिर सभा में खड़ा होकर कहने लगा "मार दिया मैंने उसको, गया वो। अब तो वो है ही नहीं।जो आपको दिख रहा है वो युवराज है ही नहीं। समझो आप।"
एक राजा बोला–तीर तो मछली की आंख पर मारना था?
जब मैंने ये नहीं सोचा कि तीर मारने के बाद मुझे क्या मिलेगा तो मैं ये क्यों सोचता कि तीर मारना कहां है।
मुझे लगा मुझे मारना चाहिए तो मैने मार दिया।"
"लेकिन इधर उधर क्यों चलाया? लक्ष्य मछली की आंख थी, कड़ाही में देखकर ऊपर निशाना लगाना था। ऐसे थोड़ी कहीं भी निशाना लगा दो?"
"देखो सबसे पहले खुद को उधर मछली की जगह रखकर देखो। वहाँ से जो दिखता है वो अलग दिखता है।
वहाँ से आपका दृष्टिकोण बदल जाता है। कड़ाही अलग दिखती है। लोग अलग दिखते हैं। धनुष-बाण अलग दिखता है।"
"लेकिन मछली को तीर थोड़ी चलाना था, आपको चलाना था।"
"आप जब धनुष उठाते हैं तो ऐसा नहीं लगना चाहिए कि तीर आपको चला रहा है, ऐसा लगना चाहिए आप तीर को चला रहे हैं।
आप कड़ाही में देखते हैं तो आपको उतना ही दिखता है, जितना कढ़ाई में होता है, लेकिन जो कड़ाही में है उतना ही तो नहीं होता, उससे ज्यादा भी तो बहुत कुछ होता है। उसके बाहर देखने के लिए आपको कड़ाही से बाहर सोचना पड़ता है। फिर आप धनुष पर रखकर तीर छोड़ते हैं तो तीर उड़ता है।
उस उड़ते तीर को ग्रहण करने के लिए आपको तीर के आगे उड़ना पड़ता है। आप अपने आपको तीर से आगे रखकर सोचिए। तब समझ आएगा।"
सभा के सब लोग सन्न थे, बस कुछ पत्रकार धन्य धन्य कर रहे थे।
फिर भी एक राजा ने कह दिया– "कहना क्या चाहते हो?"
"समझ नहीं आया न? जब शिव को पढ़ोगे तो समझ आएगा।"
"कौन शिव?"
"शिव खेड़ा, यू कैन विन।"
"उन्होंने ये सब लिखा है?"
"नहीं,उन्होंने लिखा है कि फालतू बातों में समय खराब मत करो।"
"मुझे शंका हो रही है। तुम हो कौन?"
"यह तपस्वियों का देश है और मैं तपस्वी हूँ।"
"तो तपस्वी महाराज, इस स्वयंवर में क्यों आए हैं?"
"देखिए यहाँ सभी धर्मों के लोग आए हैं। मैं इन सबको जोड़ने आया हूँ और मैं इन सब को जोड़ के रहूँगा।"
"यह तो बड़ी जोड़दाड़ बात कही आपने।" मगधराज ने कहा।
"क्या जोड़दाड़ है इसमें?" एक पत्रकार बोला।
"हमको पता नहीं है।"मगधराज ने कहा।
"कुछ पता है भी?आपके राज्य में जनता कितनी परेशान है?"
"हमको अभी पता नहीं है। हम पूछते हैं।"
"जंगल राज आया हुआ है पूरे मगध में और आप यहाँ मछली की आँख मारने चले आए हैं ?"
"जंगलराज का हमको अभी पता नहीं है। हमारे राज्य में शिक्षा व्यवस्था बड़ी ख़राब हो रही है।"
एक पत्रकार बोला - "इनको कुच्छौ पता नहीं है। बड़े राजा बनते हैं।"
दूसरा बोला - "शिक्षकों को फ़िनलैंड भेजकर ही देख लो, क्या पता पूरे मगध की शिक्षा व्यवस्था सुधर जाए। आपके यहाँ तो कोई फाइल अटकाने वाला भी नहीं है।"
उधर से कोई स्त्री कुकु-कू-कू-कू-कू की आवाज़ निकाल कर कहती है - स्वयंवर पर कंसन्ट्रेट कीजिये।
सभा में से आवाज आई - "तो तपस्वी महाराज! सब जोड़ लिया? अब क्या करेंगे?"
"आज तो इस नफरत की सभा में मोहब्बत की दुकान खोलने वाला हूँ। कल का पता नहीं।"
सभा के आयोजक ने कहा - "अरे यार दुकानदारी बाद में करना कोई ढंग का निशाने बाज हो तो बताओ। आप सबको समझ भी आया है -
- कि यह सभा किस कारण से आयोजित की गई है?"
उधर से युवराज के सहबाला ने कहा - "भारत जोड़ो यात्रा के कारण।"
सभा में सभी ने एक स्वर में कहा - साधो! साधो!
अचानक सारे पत्रकार बाहर की तरफ भागे। किसी का ध्यान सभा पर नहीं था। सब धक्का मुक्की करने लगे।
एक दूसरे के स्तर को नीच महानीच, गिरा हुआ, पड़ा हुआ, सड़ा हुआ बताने लगे।
सभा में सब बस यही सोच रहे थे कि ये हो क्या रहा है। सबका ध्यान भागेश्वर से बागेश्वर पर कैसे चला गया।
एक शरीफ आदमी कोने में बैठा हुआ था, दबी सी आवाज़ में बोला - "सभा में जो करना है कर लो, लेकिन महाराज! सभा के बाद ये तेल , कड़ाही और मछली हमको दे देना। खाने पीने की बड़ी किल्लत है आजकल।"
कुछ सच्ची झूठी बातें लिखने के प्रयास में, अधपकी कहानियाँ, कच्ची कविताएँ और व्यंग्य की कतरन
सर्व तर्केभ्यः स्वाहा
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एक चुनाव की आत्मकथा
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